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कंगाल कौन ?

आत्मचिंतन
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कंगाल कौन ? वैसे तो हम कह सकते हैं की जिसके पास तन ढकने के लिए कपड़े नहीं हैं, पेट भरने के लिए भोजन नहीं है , सर छुपाने के लिए मकान नहीं है वो कंगाल है, पर आज हम देखते हैं की जिसके पास सब कुछ है वो भी दुखी है, वो और धन-दौलत की चाह रखता है, और ऐसा भी देखा गया है की जिसके पास कुछ नहीं है वो भी सुखी है वो भी परम संपन्न है.
संपन्नता का अर्थ धनवान होना नहीं है, संपन्नता का अर्थ है सुख और दरिद्रता का अर्थ है दुःख

दुःख और सुख मन के विचारों से संबंध रखता है ,दरिद्र वो है जिसकी असीम तृष्णा हो, जिसे
हमेशा और-और की भूख सताती रहती हो, जिसके पास संतोष नहीं हो, दरिद्र वो है. आप सोचों अगर आपका पेट भरा हो तो आपको खाने की इच्छा होगी ? नहीं होगी क्यों की आपको भूख नहीं है उसी तरह अगर हम में संतोष हो तो हमें और की चाह नहीं होगी , हमें हमारे कर्मानुसार ईश्वर द्वारा जितना मिलता है अगर हम उस में सन्तुष्ट रहें तो हम दुखी नहीं रहेंगे. हमारे दुःख का कारण स्वयं हम हैं , हमने अपनी इच्छाओं को असीम कर दिया है, हमें जितना भी मिलता है हम उससे ज्यादा की चाह करते हैं. और साथ में यह भी बात है की हम स्वयं के दुःख से कम दुखी हैं और दूसरों के सुख को देख कर ज्यादा दुखी होते हैं .

एक बार की बात है , एक गांव में काफी गरीबी थी वहां के लोगों को ठीक से रहने , खाने के लिए भी पैसे नहीं थे उस गांव के लोग टूटी-फूटी फूस के घर में रह के अपना जीवन काट रहे थे तभी उस गांव में एक महान संत का आगमन हुआ और उन्होंने जब उस गांव के लोगों को इतने दुःख के साथ जीवन व्यतीत करते देखा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ और उन्होंने भगवान से फ़रियाद किया की हे प्रभु कुछ ऐसा करें की इनके दुःख मिट जाये, संत के पुकार को भगवान ने स्वीकार किया और उसी दिन जब संध्या हो रही थी तो आकाश वाणी हुई की की कल सुबह तक ब्रम्ह-मुहर्त के समय सारे गांव वासी कल्पना में अपने सारे दुःख की गठरी बांधे और गांव के पास के सरोवर में प्रवाहित कर दें और वहां से कल्पना में ही जो-जो सुख चाहिए वो सोच कर उसकी भी गठरी बना ले और वापस गांव आ कर अपनी गठरी खोले जिसे जो चाहिए होगा उसे वो प्राप्त हो जायेगा. सारे गांव वाले रात भर सो नहीं पाए आपस में विचार-विमर्श करते रहे क्या चाहिए और क्या दुःख है जब सुबह सारे गांव वाले अपने-अपने दुःख की गठरी को सरोवर में प्रवाहित कर दिया और सुख की गठरी बांध कर घर आये और जब गठरी को खोला तो जिसकी जो इच्छा थी सब पूरी हो गयी थी जहाँ टूटे-फूटे मकान थे वहां बड़े बंगले बन गए थे तब उधर से वो संत आये बोले बेटा अब किसी चीज़ की कोई कमी तो नहीं है तो देखा अभी भी सब दुखी हैं पूछा क्या हुआ तो एक ने जवाब दिया गुरु जी मैंने दो गाड़ी माँगा तो मेरे पडोसी ने तो चार गाड़ियाँ मांग ली , दुसरे से पूछा तो उसने भी कुछ इसी तरह का जवाब दिया वो भी कुछ मांगना भूल गया था और सारे गांव वाले अभी भी पहले की तरह ही दुखी थे संत कुछ दूर गए तो उन्हें बड़े-बड़े मकानों के बीच एक झोपडी दिखी उन्होंने दरवाजा पे आवाज दी तो एक बूढी औरत आयी संत ने पूछा तुमने कुछ भी नहीं माँगा , तो उसने कहा की मैं क्या मांगू मुझे कुछ भी नहीं चाहिए मेरी कोई इच्छा नहीं मैं जैसी हूँ उसी हालत में परम आनंद में हूँ.

इस बात से यह पता चलता है की हमारी इच्छा हमारे दुःख का कारण है इसका मतलब यह नहीं है की हम सारा काम-धाम छोड़ कर निकम्मे बैठ जायें संतोष का अर्थ है परिश्रम के बाद जो भी मिले उसी में हम खुश रहें भगवान को कोसते मत रहो की ये क्यों नहीं दिया और वो क्यों नहीं दिया इन्सान जो बोएगा उतना वो पायेगा ही जो बोया हीं नहीं उसकी चाह कैसी
हम जब कोई मकान खरीदते हैं या नई गाड़ी लेते हैं तो हमे सुख की अनुभूति होती है पर जैसे हीं हमारे मित्र मण्डली में या किसी अन्य के पास हम अपने से भी अच्छा गाड़ी-बंगला देखते है हमे हमारा घर हमारी गाड़ी फीकी लगने लगती है और हम फिर से अपने भाग्य को कोसते है उसको ऐसा मिला मुझे ऐसा क्यों मिला. जब तक हम अपनी इच्छाओं पे काबू नहीं करेंगे हम सुखी नहीं हो सकते. हम वहां सुख खोजते हैं जहाँ सुख है ही नहीं, हम क्या सोचते हैं की ये दुनियां के इन्सान रुपया-पैसा और धन-दौलत या गाड़ी-बंगला हमे सुख देगा. कोई सुख नहीं देगा जो खुद सुखी नहीं है वो आपको सुख कहाँ से देगा.सुख तो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के चरणों में है, हम जब तक हर परिस्थिति में सुखी रहना नहीं सीखेगें तब तक हम सुखी नहीं रह सकते हैं . हमारे भीतर परम पिता परमेश्वर का निवास हैं हमें उनका स्मरण करना चाहिए और हमे सोचना चाहिए की हे प्रभु जिसमे तेरी रजामंदी है उसी में हमारी ख़ुशी है
तू हमे जैसे रखना चाहेगा जहाँ रखना चाहेगा उसी में हम संतुष्ट हैं क्यों की वो परमात्मा हमारा हमेशा भला ही सोचतें है. वो परम दयालु कृपानिधान हैं.

परम पिता परमेश्वर के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम.

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